Thursday, October 2, 2014

नारी

नारी मन की वेदनाओं को छिपा के रखती
नारी सब दुखो को आश्रुओं में बहा देती
बस ये ही कमजोरी बन जाते इसके
ये हर नासूर को बी सह जाती

अंतर वेदनाओं को इसकी कोई समझ न पाया
सबने इसके कोमल हृदय को घात लगाया
क्या रिश्तेदार क्या इसके अपने सबने
ही तोड़े इसके सुनहरे कोंमल सपने

क्यों आखिर इसको समाज में हीन समझा जाता
क्यूँ इसके नारी होने को कोस जाता
आखिर कौन से अपराध का ये दंड पाती
क्यों हे हमेशा से ये मर्दों के हाथो कुचली जाती

एक नारी का मन कभी खोलकर देखो तुम
कितनी ज्वाला भरी पड़ी है उसके अंतस मे
कितने भाव और संवेदनाएं समेटे है वो खुद में
एक नीरीह जीव बनी मूक बनी रोती है एकाकी में

अगर कर सको तो नारी का सम्मान करो
काम ये  भी तुम महान करो
उसके दिल को कभी प्यार से भर दो
उसकी भी कभी कुछ आशाएं पूरी कर दो

मत कुम्हलाने दो एक फूल है नारी
जो बस छूने से चोट खाए इतनी कोमल है नारी
कर दो इसको आज़ाद हर दुःख से तुम
क्युकी तुम्हारी ही अर्धांगिनी है ये नारी
राखी

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