मेरी कलम आज बेताब है महबूब लिखने को
फिर से वो कोशिश कर रही स्याही से शब्द उकेरने को
कागज़ जे खाके में वो भर रही है स्याही से अल्फ़ाज़
कर रही है कोशिश आज फिर आखरों से तेरी तस्वीर बनाने को
तन्हाई में ये ज़ुल्म अपने पे रोज़ कर लेती है तुझसे रूबरू होने को
हर बार ढूंढती है तुझे अपने ही शब्दों में बात करने को
कैसे इसके मन में आया तुझे कागज़ पे गढ़ने को
क्यों ये ही आज आतुर हो गयी तुझसे मिलने को
कुछ कहने से पहले ही खुद ही चल पड़ी लिखने को
मन किया मेरा भी सुबह सुबह तेरी आँखे पढ़ने को
क्या करती कलम से गुज़ारिश की तेरी तस्वीर बनाने को
बस मुक्म्मल से कुछ शब्द लिख डाले तेरी तारीफ
करने को ।
राखी शर्मा
Sunday, January 18, 2015
कलम है बेताब
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