Monday, September 7, 2015

एक सच ये भी

वो रोज़ जलाती है खुद को उस आग में
चंद रुपयों के लिए और बुझाती है पेट की आग
आखिर सवाल उसका नही उसके साथ उसके अपनों का भी तो है जिनसे बंधी है वो और न जाने
कब तक इस आग में झुलसेगी वो
क्यों जिस्म को बेचने की सज़ा आखिर उसे मिली
आत्मा को झकझोर के रख देता है ये सवाल
रोज़ नोची जाती है उसकी अस्मिता और वो
खुद को फिर अगले दिन के लिए संभाल लेती है
ये समाज कहता है की ये उनका पेशा है और शायद ये सच भी है पर ये मज़बूरी की दास्तान भी तो है
क्या कीमत नही देता ये पुरुष और गुनहगार वो अकेली
क्या खरीदार नही जानता की ये नैतिकता नही क्या
वो कुसूरवार नही क्या वो नही हर रहा उसके सपने
हाँ वो वैश्या है और ये ही उसका धंधा है पर क्या
तूने ये सोचा है कभी हे पुरुष की तू कौन है खरीदार
या व्याभिचारी ???????

#राखीशर्मा

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